आम का बगीचा - भाग 1 piku द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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आम का बगीचा - भाग 1

'और मास्टर जी, आजकल फिर यहीं...?'


चंदन ने अपनी लहराती साइकल की तेज़ रफ़्तार को जान- बूझकर ब्रेक लगाया और घंटी बजाकर मास्टर जी को जगाते हुए पूछा।


जून की तपती दुपहरी में मास्टर जी आम के पेड़ों की छांव में सो रहे थे। अचानक बजी घंटी से वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। चंदन की शरारत को भांपते हुए बोले, 'दूर, दूर, दूर रहो जी।'


चंदन हंसते हुए बोला, 'इधर से जा रहे थे, सोचे आपका हालचाल...?'


बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मास्टर जी ने उसे डांटते हुए कहा, 'अच्छा... अच्छा, हमें सब पता है। चलो निकलो यहां से।'


मनचाही इच्छा पूरी न हो पाने का मलाल चंदन के चेहरे पर साफ़ दिख रहा था। पीले-पीले लटकते आमों को देखकर कौन लार नहीं टपकाएगा। मन में बिजली की गति से विचार दौड़ रहे थे, आंखें कुछ ही सेकंड में नीचे की तरफ़ लटक रहे आमों की फोटोकॉपी ले चुकी थीं। लेकिन मास्टर साहब के होते हुए आम चुराना तो दूर, पत्तियों को भी छू ले ऐसी किसी की मजाल नहीं थी।


अपनी पोल-पट्टी खुलती देख चंदन वहां से निराश होकर चला गया। इधर नींद में खलल पड़ने से मास्टर जी खीज गए थे। उठकर नंगे पांव पास रखे मटके की तरफ़ बढ़े और पानी पीने लगे।


गांव बौरना अपने आमों के लिए मशहूर था, और मास्टर जी के बाग़ीचे के आम सबसे ख़ास थे। मोटे, पीले, और खुशबूदार ऐसे कि मीलों तक लोगों को बाग़ीचे तक खींचते थे। गांव का हर व्यक्ति एक ना एक बार मास्टर जी के आमों की ओर ललचाई नज़रों से देख चुका था और चंदन की तरह झिड़की खाकर लौट चुका था। पर उनकी सख्त निगरानी में आम पाना असंभव था।


अहा, गांव की ओर जाती एक छोटी-सी पगडंडी, उसके ठीक


सामने स्कूल और पास ही मास्टर जी का शानदार आम का बाग़। जैसे लोग अपनी रोजी-रोटी संभालते हैं, उसी तरह मास्टर जी सालों से अपने पेड़ों की देखभाल करते आ रहे हैं। बाग़ीचे में फल लगते ही उनका बिछौना भी यहीं परमानेंट हो जाता है। आदमी तो छोड़ो, कौवा भी उनकी नाक के नीचे से चोंच मार जाए, ऐसा संभव नहीं।


गांव में हलचल है कि मास्टर जी के बेटे का बड़ा व्यापार है। और मास्टर जी को उम्मीद है कि एक दिन उनका बेटा उनकी मेहनत देखकर खुश होगा और गले लगाकर बोलेगा, 'बाबूजी, आज से आप आम नहीं ख़ास हुए।'


इस आस में मास्टर जी दिन-ब-दिन कड़वे होते जा रहे हैं। सालों से किसी ने उनके बेटे को गांव में नहीं देखा, ना ही उन्हें शहर जाते हुए। लेकिन पिता होने का सारांश शायद यही है कि चाहे आपका पौधा वृक्ष बनकर फल दे या ना दे, छाया दे या ना दे, आपको पूरी दिव्यता से उसकी देखभाल करनी है।


मास्टर जी रोज़ की तरह अपने फलों को निहार रहे थे कि तभी दूर से पायल की मद्धिम-मद्धिम, मीठी आवाज़ सुनाई दी। उन्होंने देखा रानी भागती चली आ रही है।


'ओ लड़की, इतना तेज क्यों भाग रही है, गिर जाएगी।' 'हमारा नाम रानी है और हम क्यों गिरेंगे। भगवान करे यहां पे कोई आम गिरे और हमको मिले,' रानी ने थर्मस रखते हुए कहा।

'वाह जी वाह, आम गिरे और तुम्हें मिले। भाग यहां से।'


'अच्छा ठीक है तो चाय ले के ही जाते हैं।'


'ऐसे कैसे ले जाएगी!'


'हम तो ले जाएंगे और मां को बोल देंगे मास्टर जी ने पी ली।'


'झूठ बोलोगी?'


'झूठ नहीं बोलेंगे, आपको बता दिया तो फिर झूठ कैसा।'


'चल-चल, बड़ी आई दादी अम्मा। छोटा कद, लंबी जुबान । हमें चाय पीने दे और आमों पे नजर रख।'


'ना, हम नहीं रखेंगे, हमारा मन ललचाता है और मां ने कहा है लालच बुरी बात होती है।'


'ठीक है, मत रख, हम खुद ही रख लेंगे। घर जा, सांझ हो रही।'


'अच्छा, चाय लाए रानी और मास्टर जी पिलाएं पानी।'


एक पुराने कपड़े के झोले से अपनी आधी फटी कॉपी और पेंसिल निकालते हुए रानी ने कहा।


मास्टर जी को पहले ही पता था कि क्या होने वाला है। उन्होंने चाय सुड़कते-सुड़कते, भौहें ऊपर करते हुए देखा।


'छांव में बैठ, अभी आते हैं।'


रानी चहकती हुई जाकर खाट पर बैठ गई और मास्टर जी पास रखी अधटूटी कुर्सी पर।